ओडिशा के पुरी, उत्तर प्रदेश के वाराणसी और आंध्र प्रदेश के तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों ने मंदिर से निकलने वाले नारियल के कचरे को संसाधित करने के लिए विशेष सामग्री पुनर्प्राप्ति सुविधाएं स्थापित की हैं

भुवनेश्वर में आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय की पहल मंदिर के नारियल के कचरे को स्थायी आजीविका और हरित संपदा में परिवर्तित करती है

कुन्नमकुलम में हरित डी-फाइबरिंग इकाई नारियल के कचरे को गंधहीन खाद में परिवर्तित करती है, जिससे किसानों की आय और स्थानीय हरित रोजगार को बढ़ावा मिलता है

चेन्नई में पीपीपी इकाइयां 1.15 लाख मीट्रिक टन से अधिक नारियल के कचरे को कॉयर और खाद में संसाधित करती हैं

इंदौर की एकीकृत नारियल कचरा प्रसंस्करण इकाई 20 टीपीडी को कोकोपीट और कॉयर में परिवर्तित करती है, जिससे बायो-सीएनजी और चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है

पटना का शून्य लागत वाला नारियल कचरा मॉडल 10 टीपीडी को कॉयर, कोकोपीट और जैविक खाद में संसाधित करता है, जिससे कचरे को लैंडफिल में जाने से रोका जा सकता है

खबरीलाल टाइम्स डेस्क : एक समय उपभोग का एक अनचाहा उप-उत्पाद रहा कचरा, बढ़ती आबादी और तीव्र शहरीकरण के साथ एक गंभीर चुनौती बन गया था। भारत ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत मिशन के आह्वान पर अमल करते हुए स्थिति को पूरी तरह से बदल दिया है। आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के नेतृत्व और एसबीएम-यू के तहत कचरा अब समस्या नहीं बल्कि एक संसाधन बन गया है, जिसे उत्पादों और आय में परिवर्तित किया जा रहा है। यह बदलाव तटीय शहरों में सबसे अधिक हुआ है, जहां नारियल का कचरा-जो बड़ी समस्या हुआ करता था – अब चक्रीय अर्थव्यवस्था में एक नया जीवन पा चुका है, जिससे प्रकृति के अवशेषों को आजीविका और मूल्य में परिवर्तित किया जा रहा है।

नारियल का कोई भी छिलका पीछे नहीं छूटेगा: एसबीएम-यू 2.0 के तहतनारियल का कचरा आजीविका का साधन बन रहा है – तटीय शहर इसे मजबूत रस्सियों और समृद्ध जैविक खाद में परिवर्तित कर रहे हैं।

स्वच्छ, सुरक्षित और खूबसूरत पर्यटन स्थलों की तलाश में पर्यटक तटीय शहरों की ओर आकर्षित हो रहे हैं और नारियल पानी समुद्र तट पर सबसे पसंदीदा पेय बना हुआ है—यह स्वास्थ्यवर्धक, ताजगी भरा और बेहद लोकप्रिय है। इस लोकप्रियता के कारण कभी नारियल के कचरे का ढेर लैंडफिल में जमा हो जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। आज नारियल के कचरे को अलग किया जाता है। पुनर्चक्रित किया जाता है और उसका नया उपयोग किया जाता है—जैविक खाद और मिट्टी के विकल्प के रूप में कोकोपीट में परिवर्तित किया जाता है और नारियल के रेशों से मजबूत रस्सियां बनाई जाती हैं जो कभी समुद्र तट की समस्या थी, वह अब एक स्मार्ट समाधान बन गई है।

नारियल का कचरा अब महज ‘हरित अपशिष्ट’ से एक बहुमूल्य संसाधन में तब्दील हो चुका है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार शहरी गीले कचरे में नारियल के छिलके का हिस्सा 3-5 प्रतिशत होता है – कागज़ पर तो यह कम लगता है लेकिन प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले 1.6 लाख टन नगरपालिका कचरे के मुकाबले यह बहुत अधिक है, जो तटीय शहरों में बढ़कर 6-8 प्रतिशत तक हो जाता है। कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल नारियल उत्पादन में अग्रणी हैं – और कर्नाटक अब शीर्ष स्थान पर है – भारत यह साबित कर रहा है कि एक बेकार छिलका भी बड़ा आर्थिक मूल्य प्रदान कर सकता है।

भारत की नारियल उत्पादन की कहानी वैश्विक स्तर पर धूम मचा रही है। नारियल विकास बोर्ड और कॉयर बोर्ड के अनुसार केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के लगभग 90 प्रतिशत योगदान के साथ वर्ष 2023-24 और 2024-25 में कुल उत्पादन 21,000 मिलियन यूनिट से अधिक हो गया। इस तरह अपशिष्ट से धन बनाने की यह मूल्य श्रृंखला पर्यावरण संरक्षण और विदेशी मुद्रा दोनों अर्जित कर रही है। वैश्विक नारियल कॉयर बाजार का मूल्य 2025 में 1.45 बिलियन अमेरिकी डॉलर (लगभग 12,000 करोड़ रुपये) आंका गया है, जिसमें भारत का वैश्विक उत्पादन में 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है। विशेष रूप से यूरोप और अमेरिका में बिना मिट्टी की खेती में कोकोपीट की बढ़ती मांग के कारण निर्यात में सालाना 10-15 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है, जिसमें चीन (37 प्रतिशत) और अमेरिका (24 प्रतिशत) सबसे बड़े खरीदार बनकर उभरे हैं, इसके बाद नीदरलैंड, दक्षिण कोरिया और स्पेन का स्थान आता है।

कर्नाटक के बेंगलुरु, मैसूर और मंगलुरु में नारियल के कचरे से धन उत्पन्न करने की कहानी बड़े पैमाने पर साकार हो रही है, जहां प्रतिदिन 150-300 मीट्रिक टन कच्चे नारियल का कचरा उत्पन्न होता है। तमिलनाडु के चेन्नई, कोयंबटूर और मदुरै भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। केरल के कोच्चि और तिरुवनंतपुरम से लेकर आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम, गुजरात के सूरत और महाराष्ट्र के मुंबई और पुणे तक नारियल पानी की भारी खपत ने शहरी स्थानीय निकायों और निजी कंपनियों को नारियल के छिलके के प्रबंधन के लिए समर्पित केंद्र विकसित करने के लिए प्रेरित किया है। मैसूर और मदुरै ने नारियल के कचरे का 100 प्रतिशत पुनर्चक्रण करके एक मिसाल कायम की है, जबकि ओडिशा के पुरी, उत्तर प्रदेश के वाराणसी और आंध्र प्रदेश के तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों ने मंदिर से उत्पन्न नारियल के कचरे को संसाधित करने के लिए विशेष सामग्री पुनर्प्राप्ति सुविधाएं स्थापित की हैं – यह सुनिश्चित करते हुए कि कोई भी छिलका पीछे न छूटे।

सरकारी योजनाएं नारियल के कचरे को आर्थिक रूप से काफी बढ़ावा दे रही हैं। एसबीएम-यू 2.0 के तहत उद्यमियों और शहरी स्थानीय निकायों को भरपूर समर्थन मिल रहा है, जिसमें केंद्र सरकार कचरा प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित करने के लिए 25-50 प्रतिशत केंद्रीय वित्तीय सहायता प्रदान कर रही है। कॉयर उद्यमी योजना इस योजना को और भी आकर्षक बनाती है, जिसके तहत सूक्ष्म और लघु उद्यमों को 10 लाख रुपये तक की परियोजनाओं पर 40 प्रतिशत सब्सिडी दी जा रही है। इसके अलावा, गोबर्धन योजना भी है, जिसके तहत नारियल के अवशेषों को खाद और बायो-सीएनजी में बदलने के लिए 500 नए ‘कचरा-से-धन’ संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं – यह साबित करता है कि जब नीति में स्थिरता का समावेश होता है, तो कचरा भी लाभदायक बन सकता है।

एसबीएम-यू 2.0 के तहत शहर नारियल के कचरे को संसाधन पुनर्प्राप्ति सुविधाओं (एमआरएफ) और समर्पित प्रसंस्करण इकाइयों के माध्यम से अवसर में बदल रहे हैं। भारत के तेजी से बढ़ते नारियल फाइबर उद्योग में लगभग 75 लाख लोग शामिल हैं, जिनमें से 80 प्रतिशत महिलाएं स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के नेतृत्व वाली इकाइयां चला रही हैं। देशभर में 15,000 से अधिक इकाइयों (अकेले तमिलनाडु में 7,766) के साथ, इंदौर, बेंगलुरु और कोयंबटूर जैसे शहर नारियल के कचरे को पूरी तरह से लैंडफिल में जाने से रोक रहे हैं। इस कचरे का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा अब रस्सियों, चटाइयों और खाद में परिवर्तित हो जाता है, बजाय इसके कि इसे 10-20 वर्षों तक जलाकर कार्बन और मीथेन का उत्सर्जन किया जाए। टिकाऊ, लाभदायक और रोजगार से भरपूर – नारियल के कचरे का तेजी से कायापलट हो रहा है।

भुवनेश्वर का पालसुनी नारियल प्रसंस्करण संयंत्र पवित्र कचरे को धन में बदल रहा है। यह संयंत्र प्रतिदिन 189 विक्रेताओं से 5,000-6,000 नारियल एकत्र करता है – जो कभी मंदिरों के अवशेष थे और नालियों को जाम कर देते थे – और उन्हें 7,500 किलोग्राम से अधिक नारियल के रेशे और रस्सियों में परिवर्तित करता है, साथ ही 48 मीट्रिक टन कोकोपीट आधारित खाद और खेती और बागवानी के लिए ब्लॉक भी तैयार करता है। प्रतिदिन 10,000 नारियल की प्रसंस्करण क्षमता वाला यह संयंत्र प्रति माह 7-9 लाख रुपये का राजस्व उत्पन्न करता है, जबकि स्वयं सहायता समूह के सदस्य और सफाई मित्र तकनीकी प्रशिक्षण और रोजगार के माध्यम से स्थिर आय और सम्मान प्राप्त करते हैं।

केरल के कुन्नमकुलम में स्थित ग्रीन डी-फाइबरिंग यूनिट अपने सूक्ष्मजीव-समृद्ध कोकोपीट एरोबिक कम्पोस्टिंग सिस्टम के साथ नारियल के छिलकों और गीले कचरे को गंधहीन खाद में बदल रही है। जो किसान पहले छिलकों को फेंक देते थे, वे अब प्रति छिलका 1.25 रुपए कमाते हैं और उन्हें स्वयं पहुंचाते हैं। छह सदस्यों की टीम द्वारा संचालित यह यूनिट न केवल स्थानीय रोजगार सृजित करती है बल्कि कम्पोस्टिंग की उन्नत तकनीकें भी सिखाती है। नारियल के रेशों को लाभ के लिए बेचा जाता है और बचे हुए छोटे रेशों को अभिनव बायो-पॉट में परिवर्तित किया जा रहा है।

ग्रेटर चेन्नई में कच्चे नारियल के छिलकों को खाद और कॉयर फाइबर में परिवर्तित किया जाता है। दिसंबर 2021 से अब तक लगभग 1.5 लाख मीट्रिक टन अपशिष्ट प्राप्त हुआ है, जिसमें से 1.15 लाख मीट्रिक टन से अधिक अपशिष्ट संसाधित किया जा चुका है। वेस्टआर्ट कम्युनिकेशंस के साथ 20 वर्षीय पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) के तहत संचालित कोडुंगईयूर और पेरुंगुडी स्थित इकाइयां पूरी क्षमता से काम कर रही हैं, जहां प्रसंस्करण शुल्क लगभग 764 रुपए प्रति मीट्रिक टन है। टायर कंपनियों, नर्सरी और वन विभागों सहित लगभग 30 नियमित खरीदार हैं।

इंदौर में 550 टीपीडी बायो-सीएनजी संयंत्र के साथ नारियल अपशिष्ट प्रसंस्करण मॉडल में नारियल का एक भी टुकड़ा व्यर्थ नहीं जाता। नारियल अपशिष्ट को सीधे बायो-सीएनजी संयंत्र के बगल में स्थित एक समर्पित इकाई में भेजा जाता है, जहां एक स्मार्ट दोहरी लाइन प्रणाली के माध्यम से प्रतिदिन 20 टन अपशिष्ट संसाधित किया जाता है: शुष्क लाइन से कोकोपीट का उत्पादन होता है जो मिट्टी में नमी बनाए रखने की क्षमता को 500 प्रतिशत तक बढ़ाता है, जबकि गीली लाइन से रस्सियों, मूर्तियों और शिल्पकला के लिए नारियल के रेशे निकाले जाते हैं। 20,000 वर्ग फुट में फैली और 15 कर्मचारियों द्वारा संचालित यह इकाई प्रतिदिन लगभग 20,000 रुपए की कमाई करती है और इसके उत्पादों को पहले से ही तीन प्रमुख विक्रेता बेच रहे हैं।

बिहार के पटना शहर में नारियल को तोड़कर बिना किसी लागत के कचरे से धन पैदा करने का एक अनूठा और कारगर तरीका अपनाया जा रहा है। दानापुर में स्थित एक आधुनिक पीएमसी प्रसंस्करण इकाई नारियल के कचरे को लैंडफिल में जाने से बचाकर उसे उपयोगी उत्पाद में परिवर्तित कर रही है। वर्तमान में यह इकाई प्रतिदिन 10 टन नारियल का प्रसंस्करण कर रही है। छिलकों से पैकेजिंग, निर्माण और हस्तशिल्प में उपयोग होने वाले नारियल के रेशे और रस्सियां बनाई जाती हैं, जबकि गीले कचरे से छतों, नर्सरी और खेतों के लिए उच्च मांग वाला कोकोपीट और जैविक खाद तैयार की जाती है।

मंदिर नगरों से लेकर प्रौद्योगिकी केंद्रों तक, स्वच्छ भारत मिशन-शहरी के तहत भारत की नारियल अपशिष्ट प्रबंधन यात्रा यह साबित करती है कि जब नीति, लोग और नवाचार एक साथ आते हैं तो स्थिरता फलती-फूलती है।

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