बक्सर सीट से भाजपा का टिकट ‘कन्फर्म’ बताया जा रहा था, लेकिन मिश्रा को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता तक नहीं मिली। टिकट भी अश्विनी चौबे से काटकर मिथिलेश तिवारी को दे दिया गया। नतीजा: नाराज़ आनंद मिश्रा ने निर्दलीय चुनाव लड़ डाला। हालांकि वोट सम्मानजनक थे, लेकिन उनके कारण भाजपा की सीट गई और RJD के सुधाकर सिंह जीत गए। यह हार भाजपा को तो लगी ही, बक्सर के ब्राह्मण समाज को भी चुभ गई—जो अब खुलेआम कह रहा है कि ‘बक्सर का एमपी गैर-ब्राह्मण हो गया।’ प्रशांत किशोर संग नई शुरुआत, फिर ब्रेकअप:
चुनाव के बाद उम्मीद बंधी कि मिश्रा ‘जन सुराज’ की राह पर प्रशांत किशोर के साथ लंबा सफर तय करेंगे। लेकिन यह भी लंबा नहीं चला। अब अंदरखाने खबरें हैं कि आनंद मिश्रा फिर से भाजपा के संपर्क में हैं और डील लगभग तय मानी जा रही है। चर्चा है कि 2025 के विधानसभा चुनाव में उन्हें बक्सर से उतारा जा सकता है—but again, देरी हो रही है, असमंजस बना हुआ है। बक्सर में स्थानीयता की आग:
इस पूरे घटनाक्रम में जो बात सबसे बड़ा रोड़ा बनकर उभरी है, वह है स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा। विश्वामित्र सेना के प्रमुख राजकुमार चौबे जैसे नेता अब खुलकर कह रहे हैं कि बक्सर की अस्मिता की लड़ाई में केवल “बक्सर का बेटा-बेटी” ही चुनाव लड़ेगा। उनका दावा है कि बाहरी उम्मीदवारों ने बक्सर की राजनीति को बर्बाद किया है और अब इसे धार्मिक राजधानी बनाने के लिए एक स्थानीय नेतृत्व की जरूरत है। आगे क्या?
राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा अब तेज़ है कि क्या भाजपा आनंद मिश्रा को टिकट दे पाएगी, या फिर ‘स्थानीयता’ की आग उन्हें भी जला देगी। खुद मिश्रा को भी तय करना होगा कि वह बक्सर के राजनीतिक तापमान के अनुकूल खुद को कैसे ढालते हैं। निष्कर्ष:
कभी असम के बहादुर आईपीएस, अब बिहार के असमंजस भरे नेता। आनंद मिश्रा की यात्रा कहीं न कहीं यह दर्शाती है कि सियासत केवल सपनों और रणनीतियों से नहीं, बल्कि ज़मीन से जुड़ाव और स्थानीय भरोसे से भी चलती है। अब देखना है कि क्या वह फिर से राजनीतिक रिंग में उतरेंगे या यह कहानी यहीं थम जाएगी।